Tuesday, October 2, 2012

.....और राष्ट्रकवि ने तोड़ दिया भरोसा

 मैं पिछले दो दिनों से एक "महाकवि" द्वारा पंडित नेहरु के उपर लिखी रचना पढ़ रहा हूँ. पढकर मन दुखी हो गया. क्योंकि उनकी इस रचना को पढने के पहले उस महाकवि के लिए मेरे मन में अपार श्रद्धा थी. मैं उन्हें राष्ट्रवादी कवि समझता था. मुझे लगता था कि युवाओं को ललकारने में इनकी कवितायें यदि सहायक हैं तो उनका व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा होगा. यह मेरी गलती थी कि मैंने ऐसी अपेक्षा कर ली. जब आप भी उनकी रचना पढेंगे तब आपको भी ऐसा ही लगेगा. कई जगह तो उन्होंने लिखा है कि यदि नेहरु के किसी आचरण के कारण देश को नुकसान उठाना पड़ा तो मैं उनके उस आचरण के साथ हूँ. पूरी रचना में उन्होंने चाटुकारिता से अधिक कुछ नहीं की है. मुझे नाम लेने में संकोच हो रहा है. क्योंकि मेरी तरह कई युवा साथियों की भावनाओं को ठेस लग सकता है. लेकिन नाम तो उनका सार्वजानिक करूंगा ही. इसके  पहले उनकी कुछ पंक्तियाँ आप लोगों के सामने रख कर. 

ये महाकवि हैं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर. मुझे अब तो लग रहा है कि नेहरु जी की चरण वंदना करके ही इन्होने राष्ट्रकवि का तमगा हासिल किया होगा. मुझे तो इसको लेकर कोई शक सूबा नहीं है. आखिर ऐसे लोगों को चरण चाटुकारिता की क्या मजबूरी होती है ? जिनकी लेखनी में इतना दम हो उसे इस तरह की क्या मजबूरी हो सकती है. अब समझ में आता है  कि बाबा नागार्जुन और गोपाल सिंह नेपाली को कोई पदवी क्यों नहीं मिली? मैं तो कहूँगा कि इसके लिए राष्ट्रकवि दिनकर को आनेवाली पीढ़ी कभी माफ़ नहीं करेगी. जिस रश्मिरथी को पढकर युवक अपने को संघर्ष करने को तैयार करता है, अपने मानसिक और सामजिक दबाव से निजात पाने की कोशिश करता है, वो जब जानेगा कि इसके रचियता सब दिन चरण चाटुकारिता करते रहे, तब उसे उनकी रचना में भी संदेह होने लगेगा.  

Monday, October 1, 2012

गाँधी जी को जानना हो तो सेवाग्राम आएं




कल दो अक्टूबर है. महात्मा गाँधी का जन्मदिन. इस बार मैं ऐसे स्थान पर आ चूका हूँ जहां की पहचान ही गाँधी जी के साथ जुडी है. वर्धा-सेवाग्राम. एक तरफ विनोबा जी का ब्रह्म विद्या मंदिर तो दूसरी ओर महात्मा गाँधी और कस्तूरबा का आश्रम. अपने चार-पांच मित्रों के साथ शनिवार ३० सितम्बर को मैं सेवाग्राम गया था. बापू यहाँ वर्ष १९३६ से १९४६ तक पूरे दस सालों तक रहे थे. कहा जाता है कि इस इलाके में प्लेग फैला हुआ था. काफी संख्या में लोगों की मौतें हो चुकीं थी. आलम यह था कि आस पास के कई गाँव खाली हो गए. ऐसे में बापू का यहाँ आना होता है. बापू और कस्तूरबा  ने मिल कर लोगों की सेवा की. उसके बाद अगले १० सालों तक बापू ने सेवाग्राम के इसी आश्रम से अपने सभी आंदोलनों का सञ्चालन किया. पुरे आश्रम की वयवस्था ऐसी है कि किसी भी चीज़ के लिए परावलम्बी ना बन ना  पड़े. आश्रम के एक छोर पर गौ शाला है. एक छोर पर नई तालीम का का केंद्र है. जहाँ गाँधी  जी की बुनियादी शिक्षा पर आधारित ज्ञान देने काम काम आज हो रहा है. आश्रम में ही सूत काटने के लिए चरखा है. आश्रम में तैयार हुए कपडे का ही गाँधी जी  प्रयोग करते थे. आश्रम की खेती से प्रयाप्त मात्र में खाने के लिए अनाज का उत्पादन भी हो जाता था. जैविक पद्धति पर आधारित खेती होती थी. क्या शानदार व्यस्था है. हम लोगों ने भी आश्रम का ही खाना खाया. भाखर- झुनका (ज्वार की रोटी) और अम्बाड़ी शरबत का स्वाद चखा. हालांकि आज आश्रम का खाना सबों की पंहूच से बहार हो चूका है. ऐसा मै इसलिए कह रहा हूँ कि आप ऐसा मत समझ लें कि आश्रम का  खाना बहुत सस्ता रहा होगा. खैर मुझे तो स्वाद लेना था. इसके बाद सर्व सेवा संघ  पंहुचा. गाँधी जी के जितने भी मूल साहित्य हैं, वे इसमें संरक्षित हैं. विनोबा और जयप्रकाश नारायण जी से जुड़े कई साहित्यों का परकशन आज भी यहाँ से हो रहा है.  
                                                           वहां मेरा दूसरी बार जाना हुआ था. इस बार आश्रम की एक एक चीजों को बड़े धयान से देखा. पुरे इत्मीनान के साथ गए थे. शुरुआत हुई- आदि निवास से. महात्मा गाँधी के लिए वर्ष १९३६ में जमनालाल बजाज ने "आदि निवास " का निर्माण करवाया था. गाँधी जी ने निर्देश दिया था कि इसकी लागत किसी भी रूप में एक सौ रूपये से अधिक नहीं होनी चाहिए. आश्रम को करीब एक सौ एकड़ की जमीन मिली हुई है. आदि निवास करीब चार कमरों का एक खपरैल मकान है. बापू कस्तूरबा के साथ इसी में रहते थे. लोगों की आवाजाही बढ़ने लगी. ऐसे में "आदि निवास" छोटा पड़ने लगा. बा (कस्तूरबा ) की परेशानी को देखते हुए बजाज जी ने "आदि निवास" से सटे एक बा कुटी बनवा दिया. अब "आदि निवास" में बापू का रहना होने लगा. जो लोग मिलने आते थे वे भी उसी आश्रम में रहते थे. अब बापू के लिए भी वहां रहना मुश्किल हो रहा था. आखिरकार बापू के लिए भी अलग से बापू कुटी बनवाई गई. यह "आदि निवास" के बगल में ही है. इन तीनों के बीच में है प्रार्थना स्थल. जहां हर दिन सर्व धर्म प्रार्थना सभा होती थी. जब मैं अपने मित्रों के साथ वहां बापू की एक-एक चीजों का अवलोकन कर रहा था , तो मन में एक साथ कई सवाल भी उठ रहे थे. लेकिन सवाल के साथ ही जवाब भी अगले ही पल मिल रहा था. बापू का जीवन कितना व्यवस्थित था, यह बापू कुटी आकर ही पता चलता है. बापू कुटी के पश्चिमी छोर पर कहें तो जिम खाना है. कभी यहाँ पर सरदार पटेल की तबीयत खराब होने के बाद बापू ने उनका भी इलाज किया  था. क्या करीने से तमाम चीजों को सजा कर रखा करते थे बापू ने! इसमें सहयोग करती थी इंग्लॅण्ड से आई मिस स्लेड. जो बाद के दिनों में मीरा बहन के नाम से जानी गई. छः कमरों के इस कुटी में सब कुछ है. उनसे मिलने आने वालों के लिए मीटिंग हॉल, धयान करने के लिए एक अलग कमरा, मसाज के लिए अलग कमरा . पुरे कमरे की बनावट ऐसी है कि वह हर मौसम में रहने के अनुकूल है. मिटटी का बना यह आश्रम आज भी एक साथ कई खूबियों को समेटे है. 
                                     इसके बाद परचुरे कुटी. संत परचुरे को कुष्ठ की बिमारी हो गई थी. बापू परचुरे के सेवा उसी कुटी में  करते थे. उनके लिए विशेष कुटी का निर्माण करवाया गया था. परचुरे कुटी पुरे तौर पर प्रकृति की गोद में बना है. ऐसे तो पूरा आश्रम ही प्रकृति की गोद में है. यहाँ बा और विनोबा जी द्वारा लगाया गया कई पेड़ है. मन तो वहां से आने का नहीं कर रहा था, लेकिन क्या करते. समय का अनुशासन तो मानना ही पड़ता है. शाम ढलने के पहले ही हमलोग वहां से चल पड़े. अपने मित्रों से तो यही कहूँगा कि कभी गाँधी जी को जानने का शौक हो तो एक बार सेवाग्राम जरूर आयें. 

Thursday, September 20, 2012

आज-कल हावी हो रहे हैं ' मिडीयोक्रेट '



' मिडीयोक्रेट '.  आज एक नए शब्द का ज्ञान हुआ. नया इस मायने में आज मैं इससे पहली बार रु-ब-रु हो रहा था. इसकी पूरी व्याख्या भी की गई. ब्यूरोक्रेट के मानिंद ही ही इसका भी अर्थ है. कमोबेश सभी मीडिया घरानों में ' मिडीयोक्रेट ' का चलन हो गया है. अखबार के मालिकों को अब संपादकों पर तो भरोसा रहा ही नहीं. पूरा सम्पादकीय आज ' मिडीयोक्रेट ' के सहारे ही चल रहा है.  मौका था- मीडिया, कॉर्पोरेट और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आयोजित परिसंवाद का. महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के हबीब तनवीर सभागार में मीडिया जगत के कई पीड़ित संपादक जमा हुए थे. पीड़ित इस मायने में मैं कह रहा हूँ की आज की तारीख में एक को छोड़कर सभी का परिचय पूर्व संपादक के तौर पर ही करवाया जा रहा था. हालाँकि उनमे अभी काम करने की पूरी क्षमता है. इस परिसंवाद में शामिल हुए थे-- हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व संपादक सी के नायडू, इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक दर्शन देसाई और आउटलुक की गीता श्री. गीता श्री पत्रकारिता में एक महिला होने की पीड़ा सुना रही थी. " पिछले २२ सालों में मैं फूटी हुई कारतूस हो गई हूँ. आपके फीलिंग को जब एडिट किया जाता है, पत्रकारों को रास्ता बदलना  पड़ता है. पत्रकारों को बर्बाद करने वाली संस्था का नाम है- संपादक. " गीता श्री के ये कुछ शब्द थे. सी के नायडू----" २० साल पहले यह सोचते थे कि क्या छापना है. आज सोचते हैं कि क्या-क्या नहीं छापना है? "

पुरुष छिनाल क्यों नहीं ?




आज एक फिर नया विमर्श. महिलायें यदि छिनाल हो सकती हैं तो पुरुष क्यों नहीं? जिस योनी स्वछंदता को अपनाने के बाद महिलायें छिनाल हो जाती हैं, तो पुरुष भी छिनाल हो सकता है. अब वक्त आ गया है कि पुरुष को भी छिनाल घोषित किया जाए. पुरुष को भी छिनाल महिलाओं की तरह समाज में उपेक्षित किया जाए. यह मांग और विचार ना तो मेरा है और ना ही आज की कोई मांग है. समाजवादी चिन्तक राम मनोहर लोहिया ने यह आवाज़ उठाई थी. मैं तो इस बात का पुर जोर समर्थन करता हूँ. यदि पुरुष को छिनाल घोषित नहीं किया जा सकता तो महिलाओं को ऐसा कहने का कोई तर्क नहीं है. आज से अपने आस-पास के ऐसे छिनालों को चिन्हित किया जाए. 
     यदि पुरुषों को छिनाल घोषित करने का चलन शुरू हो गया, तब समाज में सच में एक बड़ी क्रांति हो सकती है. मुझे लगता है कि इसकी शुरुआत अपने घर से ही करनी होगी. यदि अपनी बहन इस स्वछंदता को अपनाती है, तब पूरा समाज हमें " छिनाल परिवार  " कह कर संबोधित करता है. लेकिन जब यही काम अपना कोई भाई और चाचा करके आते हैं,  तब बड़े शान से गाँव के चौपाल पर इसकी चर्चा करते हैं. २१वी सदी नारी सदी हुई तो महिलाएँ सदियों का बदला ले लेंगी. इसकी शुरुआत भी हो चुकी है. इन दिनों मैं लोहिया को पढ़ रहा हूँ. मुझे लोहिया तो ultra मोडर्न मालुम पड़ते हैं. खास तौर पर जिस ढंग से महिलाओं की आजादी बात उन्होंने की है, सच में काबिल-ए-तारीफ है. 

समाज के लिए साधना कर रही हैं मनोरमा


मनोरमा जी अपने में एक जीती जागती इतिहास हैं। जब मुझे मालूम हुआ कि  मनोरमा जी लोक नायक जय प्रकाश  नारायण जी की दत्तक  पुत्री हैं, तब मेरी नजरों में उनका सम्मान और बढ़ गया। जिसके नाम की राजनीति करके आज बिहार में आज मोदी-लालू-नितीश सत्ता का सुख भोग रहे हैं, उनकी बेटी आज सन्यासिन हैं। साध्वी हैं। गुमनाम जिन्दगी जी रही हैं। पता नहीं जे पी के चेलों  को इनके बारे में जानकारी है भी या नहीं। मैं तो  उनसे बात करके धन्य हो रहा था।
                                       मनोरमा जी एक गीता की उपासक हैं। पूरा आश्रम श्रम की पूजा के  पैर चलता है। सभी  लोग इतना तो श्रम कर ही लेते हैं कि कम-से-कम अपने लिए खाने का इंतजाम कर लें। जब मैंने मनोरमा  जी से पूछा कि करीब 38 साल यहाँ बिताने के बाद आपके हाथ क्या आया? थोड़ी देर के लिए मनोरमा चुप चाप मेरे चेहरे को पढ़ रही थी। शायद यही सोच रही थी कि आखिर इस बच्चे को कैसे समझाया जाय। कहती हैं कि  जो मैंने पाया है, उसकी किसी चीज़ से तुलना नहीं की जा सकती। सुबह से शाम तक यहाँ पर ध्यान का कार्यक्रम चलता है। पूरी व्यवस्था ठीक उसी तरह की है जैसे किसी जमाने में ऋषि जंगल में जाकर ध्यान किया करते थे। ध्यान के दौरान अपने लिए सभी जरूरी आवश्यकताएं उन्हें खुद पूरी करनी होती थी, ठीक उसी तर्ज़ पर यहाँ पैर महिलाओं के लिए व्यवस्था  बनाई गई  है।
                                     चेनम्मा जी की उम्र 82 साल है। अभी वो अपने पूरी तरह स्वस्थ हैं।  कर्नाटक की रहने वाली चेनम्मा पिछले 40 सालों से ब्रह्मा विद्या मंदिर में रह रही हैं। सन्यासिन का जीवन जी रही चेनम्मा यहाँ आने के पहले कस्तूरबा विद्यालय में विनोबा जी से मिली थीं। चेनम्मा जी ने बताया कि विनोबा जी उनसे कहा कि चलो तुम लोगों को लिए एक स्पेशल आश्रम बनवा देते हैं। उसके बाद से पवनार में आ गईं। जब गृहस्थ जीवन को लेकर चेनम्मा जी की राय ली, तब उनका कहना था कि  बेटा जो काम मैं इस जीवन में रह कर पूरा केर ले रही हूँ, वो उसमे संभव नहीं था। 

पवनार आश्रम में एक दिन


कल मैं पवनार आश्रम गया था. यावात्माल-नागपुर उच्च मार्ग से सटे है यह आश्रम. करीब १५ एकड़ की जमीन पर बना यह आश्रम तमाम तरह  की प्राकृतिक विविधता अपने में समेटे है. कृत्रिमता से कोसों दूर. सब कुछ असली. बनावटी दुनिया के जामने में असली की बात हो तो आकर्षण तो होगा ही. शायद इसी कारण यहाँ आने वाले लोगों में सबसे अधिक पढ़े लिखे लोग ही होते हैं. 

भूदान आन्दोलन के प्रणेता विनोबा जी द्वारा स्थापित है यह आश्रम. विनोबा जी ने  महिलाओं के लिए खास तौर से यह आश्रम बनवाया था. वैसी महिलाएं,  जो मीराबाई की तरह अपने को साध्वी जीवन में रखना चाहती हैं, उनके लिए. मैं शाम के चार बजे आश्रम पंहुचा. आश्रम की महिलाएं इसे आश्रम नहीं ब्रह्म विद्या मंदिर कहती हैं. जब पंहुचा तो पता चला कि अभी यहाँ २४ साध्वी महिलाएं  हैं. इनमे सबसे छोटी  हैं पल्लवी...उम्र करीब २५ साल. पल्लवी असाम से हैं.  ऋषि खेत में पल्लवी लौकी का पटवन कर रही थी. पल्लवी बायो केमिस्ट्री से स्नातक हैं. कॉन्वेंट स्कूल में पिछले पांच सालों से पढ़ा रही थीं. लेकिन भौतिक दुनिया में मन नहीं रमा . अभी पल्लवी को आये दो साल हुए हैं. कहती हैं कि यहाँ भगवत गीता के अनुसार की जीवनचर्या उन्हें बेहद पसंद हैं. सबसे छोटी होने के कारण सभी की लाडली भी हैं. अब थोड़ी चर्चा ऋषि खेत की. करीब २.५ एकड़ की जमीं  पर महिलाएं खुद खेती करती हैं. इनमे फल  और सब्जियां शामिल हैं. इनके साथ कोई अलग से श्रमिक नहीं होते. ना तो इन खेतों में किसी तरह का कोई रसायन का इस्तेमाल होता है. आश्रम में करीब २० गायें भी हैं. सबों की देखभाल की जिम्मेवारी आश्रम के लोगों पर ही है. करीब दो घंटे तक आश्रम में रहा. पता ही नहीं चला, कब शाम गहरा गई. 
                   जैसे ही मैं आश्रम पंहुचा तो मेरी नजर एक प्रौढ़ा पर पड़ी. विनोबा जी की समाधी वाले कमरे के बहार एक प्रौढ़ा दो बच्चों को कुछ समझा रही थी. पूरे परिसर में सन्नाटा था. मैं भी बैठ गया. प्रणाम करते ही पूछी...कहो बेटे कहाँ से आये हो? जब उन्हें पता चला की मैं पटना का हूँ, तब थोड़ी देर के लिए उनके चेहरे पर एक प्रसन्नता का भाव दिखा. पटना में कहाँ से हो. इसके बाद अपना परिचय देती हैं- मैं जय प्रकाश नारायण की दत्तक पुत्री हूँ. मेरा नाम है- मनोरमा. जब मैं १७ साल की थी तभी मैं पवनार आ गई थी. उसके बाद से मैंने फैसला कर लिया कि अब मुझे इसी दुनिया में रहना है. उसके बाद से मैं विनोबा जी की शिष्या बन गई. मनोरमा अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहती हैं - जब मैं पहली बार मैं पवनार आश्रम आई थी, और विनोबा जी पैर छूकर प्रणाम किया तब, उन्होंने कहा बेटी अब आप यहीं रह जाओ. मुझे लगा कि जैसे मेरी मन की मुराद पूरी हो गई. आखिर पिता तो पहले से ही विनोबा जी से  प्रभावित थे. इसीलिए उनका भी कोई विरोध नहीं हुआ. अभी भी  कभी कभार घर जाना होता है. ब्रह्मा विद्या मंदिर के बारे में काफी देर तक बातें होती रहीं. 

Tuesday, September 4, 2012

पढ़ाई के लिए बमबाजी



सच में अपना प्रदेश महान है. मैं केवल इतिहास के आधार पर ये दावे नहीं कर रहा हूँ. वो तो एक समय था कि यहाँ दुनिया भर के शिक्षार्थी पढ़ाई के लिए आते थे. नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय दुनिया भर में शोध का केंद्र हुआ करता था. ये सब इतिहास की बातें हैं. आज मैं वर्तमान की बात कर रहा हूँ. ये तो सभी मानते हैं कि बिहार के लोग पढाई के लिए कहीं भी जा सकते हैं और किसी हद तक जा सकते हैं. मेहनत करने में इनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता. अब देखिये ना. घर से  कोचिंग की फीस नहीं मिली तो, तो इसका भी उपाय निकल लिया. कोचिंग वाले  से पहले तो कहा कि आप मुफ्त में पढ़ा दें. जब वे राजी नहीं हुए, तब वहां बमबाजी भी की. लाठियां भी  भांजी. हवाई फायरिंग भी की. सब के  पीछे मनसा कोई लूटपाट की नहीं थी. पढाई करने की थी. दुनिया वालों जरा सोचिये. हम लोग पढाई के लिए क्या कुछ नहीं कर सकते.....
  हम लोगों को मौका नहीं मिलता। इस घटना ने एक बात तो साफ़ कर ही दिया  है कि हम लोगों में पढने की कितनी ललक है। काश दुसरे प्रदेशों की तरह यहाँ भी पढने की सुविधा होती। 

समाज में तीन तरह के गाँधी



आज समाज में तीन तरह के गाँधी हैं. एक हैं- सरकारी गाँधी. जवाहर लाल नेहरु इसके बेहतर उदहारण हैं. दूसरा प्रकार है- मठाधीश गाँधी. बिनोवा जी को इसी श्रेणी का कहा गया है. तीसरा प्रकार है- कुजात गाँधी. लोहिया  कुजात गाँधी के प्रवर्तक रहे हैं. अब आप तय करें कि आज गांधियन विचार के किस श्रेणी में आते हैं. ऐसे यह विकल्प आपके सामने तभी है, जब आप किसी ना किसी रूप में गाँधी जी विचारों को लेकर तरफदारी करते हैं. मैं भी अपने को टटोलने की कोशिश कर रहा हूं. जब से मेरे गुरु जी ने आज की कक्षा में इसकी चर्चा की है- मैं द्वंद्व में हूं. कॉलेज में पढ़ नहीं रहा होता तो अपने को सरकारी गाँधी की श्रेणी में ही रखता. यदि इस श्रेणी में फिट नहीं भी बैठता तो कोशिश करने में क्या बुरा है. आखिर असली मज़ा  तो सरकारी गाँधी वालों को ही है. कॉलेज से निकलने के बाद भी अपने को गांधियन विचार की किसी-ना-किसी श्रेणी के लायक जरूर तैयार कर लूँगा. ऐसे मठाधीश गाँधी में भी फायदा-ही-फायदा है. अब आप बताइये कि आप किस श्रेणी में हैं. 


Saturday, August 18, 2012

जानवरों की पूजा का पर्व है "पोला"



कल(शुक्रवार) यहाँ पोला था. आज (शनिवार)तनहा-छोटा पोला है. यह ठीक वही पर्व है, जो अपने यहाँ दिवाली के बाद गोवर्धन पूजा और गैया डांड के रूप में मनाया जाता है. पोला में मुख्य तौर पर बैलों की पूजा होती है. हलवाहे अपने बैलों को सजाकर मेले में लाते हैं. जिनके घरों में बैल नहीं हैं, उनके यहाँ हलवाहे अपने बैलों को लेकर जाते हैं. बैलों की आरती उतारी जाती है. घर में बने पकवान बैलों की खिलाये जाते हैं. बैलों की रेस होती है. घरों में उत्सवी माहौल दिखा. मेरे मराठी मित्र  आमोल ने मुझे भी खाने  पर आमंत्रित किया था. लेकिन मैं तो ठहरा शाकाहारी. इसलिए मैं आमोल का साथ नहीं दे सका. वर्धा के सभी चौक चौराहों पर मेले का आयोजन था. तनहा पोला की अपनी खासियत है. इसमें छोटे छोटे बच्चों को किसानो की वेश भूषा में सजाया गया था. वर्धा के सिंडी रेलवे में ३ हज़ार बल गोपाल जमा हुए थे. अपने साथी प्रेम और निरंजन के साथ मैंने भी कल पोला मेले का भरपूर आनंद लिया. मेले में आकर अपने गांव की  याद एकाएक ताज़ा हो गई थी. मेरे गाँव में भी हर गुरुवार को एक पशु मेला लगता है. लेकिन इस मेले में बैलों की सजावट हर किसी को भी आकर्षित कर रही  थी . चलिए इसी बहाने कम-से-कम पशुओं के प्रति लोगों का प्रेम देखने को मिल जाता है.
       पोला के नाम पर ही सही, एक दिन तो पशु प्रेम दिख जाता है। आज जिस तरह से अपने देश में जानवरों को काटने के लिए स्लॉटर   हाउस खुल रहे हैं। लोकसभा में आज ही बयान दिया गया कि अपने यहाँ एक भी स्लौटर के लाइसेंस नहीं दिए गए हैं। लेकिन सच  क्या है, यह तो सबों को  पता है।   

Thursday, August 16, 2012

आखिर मैं वर्धा आ ही गया




वर्धा संस्मरण

आख़िरकार मैं वर्धा आ ही गया। एक उहापोह के बीच. 10 अगस्त 2012 को पटना छोड़ा। महात्मा गाँधी हिंदी अंतर्राष्ट्रीय विश्विद्यालय-वर्धा  में आज छः दिन हो गए हैं। कई तरह के अनुभव एक  साथ ले रहा हूँ। कॉलेज की नियमित कक्षाए एक लम्बे अन्तराल के बाद करने  का अवसर मिला। हालांकि पहले दिन गुरु जी की डांट  भी सुनी। देर से कॉलेज आने के लिए यह डांट मिली थी। 15 अगस्त के कार्यक्रम में शामिल होने का मौका यूँ  तो हर साल मिलता  था। लेकिन इस साल एक छात्र के रूप में मैं शरीक हो रहा था। कॉलेज बंद था। इस मौके पैर नाट्य कला विभाग द्वारा फिल्म दिखाने का कार्यक्रम पहले से निर्धारित था। मुझे फिल्म में रूचि नहीं है। लेकिन यदि वह आर्ट  फ़िल्में हो तो देख लेता हूँ। महाश्वेता देवी के उपन्यास पर आधारित 1084वें की माँ। पहले से इसके  बारे में काफी सुन रखा था। इस लिए मैं अपने को देखने से रोक नहीं पाया।
अब थोड़ी चर्चा फिल्मे की। नक्सलवादी आन्दोलन पर आधारित इस फिल्म में शुरू से लेकर अंत तक यह दिखाने की कोशिश की गई है की  आजाद हिंदुस्तान में भी अभी हिंसा के जरिये एक बदलाव की जरूरत है। लेनिन और माओ के सिद्यांत को अपनाने की जरूरत है। वर्ग संघर्ष की कहानी है। हालाँकि मैं व्यक्तिगत तौर पर निर्देशक की राय से सहमत नहीं हूँ। करीब दो घंटे की फिल्म मैंने पूरी देखी.
तारीख 16 अगस्त 2012- आज कॉलेज में गेस्ट लेक्चर होना था। पहले तो मुझे पता था कि  मीडिया मैनेजमेंट के एक्सपर्ट आ रहे हैं। एक्सपर्ट तो आये ही। लेकिन एक और आन्दोलनकारी भी आये थे। इसकी जानकारी मुझे नही थी। पता चला किसान आन्दोलन की बड़े नेता हैं। नाम था- विजय जवांदिया। परिचय करवाया गया- महाराष्ट्र में किसानो को संघटित कर कई मांगें पूरी करवाई हैं। करीब घंटे भर के संबोधन के बाद मुझे भी कुछ पूछने का मौका मिला। मैंने जब से पत्रकारिता में कदम रखा है- विदर्भ के बारे में एक ही बातें सुनी हैं. यहाँ के किसान कर्जों के बोझ टेल ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। सुन कर थोडा अजीब भी लगता. लेकिन मैं इसका सत्यापन तो कर नहीं सकता था। मीडिया में जो रिपोर्ट आती थी उस पर विश्वास करना मेरी विवशता थी। अब मैं विदर्भ में आ चूका हूँ। मेरी इस बात को लेकर शुरू से ही जिज्ञासा रही  है की  क्या सच में यहाँ के किसान अपना ऋण न चूका पाने के कारन आत्महत्या करते हैं या कोई और वजह है। अपने एक साथी आमोल से मैंने पहले भी इसके बारे में जान्ने की क कोशिश की  थी। लेकिन पूरी जानकारी नही जुटा सका था। हालांकि आमोल ने भी कहा  था कि ऐसी कोई बात  नहीं है। आज एक बार फिर मुझे मौका मिला  था कि अपनी जिज्ञासा शांत करूं। मैंने बड़ी सहजता के साथ जावन्दिया जी से पूछा- आप यह बताएं कि यहाँ के किसान सच में बैंक लोन  न चूका  पाने के कारण आत्महत्या करते हैं? उनका जवाब था- ऐसा नहीं है। अपने निम्न जीवन स्टार को लेकर वे ऐसा करते हैं। मैंने कहा- ऐसा तो पूरे भारत में होता है- लेकिन बात केवल विदर्भ की ही क्यों होती है? इसपर कोई माकूल जवाब नहीं मिला। खैर मेरे दिल को तसल्ली मिली। पहले मुझे लग रहा थाई कि इनके यहाँ बैंक वालों का इतना ज्यादा खौफ है कि लोन चुकाने के दबाव में आत्महत्या को मजबूर हो जाते हैं। हालाँकि किसानो की दुर्दशा पूरे देश में कमोबेस एक जैसी है। मैं इससे इनकार नहीं कर रहा.
जावन्दिया जी के बिनोवा जी के लैंड सीलिंग पोलिसी से भी दुखी थे। हालाँकि बाद में जब उन्हें यह एहसास हुआ कि गलत जगह  पर वे अपनी राय जाहिर कर रहे हैं- तब उन्होंने बिनोवा जी के बिहार में दिए गए एक भाषण को उधृत करते हुए उन्होंने अपनी भूल सुधारने की कोशिश की। जावन्दिया जी को अपने पिता जी से 50 एकड़ की सम्पति मिली थी। आज इनके पास 13 एकड़ जमीं बची है। आज जाव्न्दिया जी केवल और केवल किसानो के लिए आन्दोलन करते हैं। कॉलेज और विश्विद्यालयों में व्याख्यान देते हैं। मुझे नहीं जानकारी कि वे इसके एवज में पैसे भी लेते हैं या नहीं। जब मैंने पूछा कि आप तो एक जागरूक किसान रहे हैं। आपकी जमीं की स्थिति क्या है? जवाब मिला- मैंने 17 एकड़ जमीन बेच दी है। इस पैसे से मैंने कार खरीदी है। एक किसान को कार की क्या जरूरत हो सकती है- यह आप भी बखूबी समझ सकते हैं। तो एक नमूना दिखा- किसान आन्दोलन के नेता की। हालाँकि किसानो के नेता की राजनीति का नमूना मैंने बिहार में भी देखा है। आज बिहार में सत्ता पक्ष हो या विपक्ष- सबों ने  किसानो की राजनीति से ही शुरुआत की थी। आज सत्ता की रोटियाँ सेंक रहे हैं।