Saturday, August 18, 2012

जानवरों की पूजा का पर्व है "पोला"



कल(शुक्रवार) यहाँ पोला था. आज (शनिवार)तनहा-छोटा पोला है. यह ठीक वही पर्व है, जो अपने यहाँ दिवाली के बाद गोवर्धन पूजा और गैया डांड के रूप में मनाया जाता है. पोला में मुख्य तौर पर बैलों की पूजा होती है. हलवाहे अपने बैलों को सजाकर मेले में लाते हैं. जिनके घरों में बैल नहीं हैं, उनके यहाँ हलवाहे अपने बैलों को लेकर जाते हैं. बैलों की आरती उतारी जाती है. घर में बने पकवान बैलों की खिलाये जाते हैं. बैलों की रेस होती है. घरों में उत्सवी माहौल दिखा. मेरे मराठी मित्र  आमोल ने मुझे भी खाने  पर आमंत्रित किया था. लेकिन मैं तो ठहरा शाकाहारी. इसलिए मैं आमोल का साथ नहीं दे सका. वर्धा के सभी चौक चौराहों पर मेले का आयोजन था. तनहा पोला की अपनी खासियत है. इसमें छोटे छोटे बच्चों को किसानो की वेश भूषा में सजाया गया था. वर्धा के सिंडी रेलवे में ३ हज़ार बल गोपाल जमा हुए थे. अपने साथी प्रेम और निरंजन के साथ मैंने भी कल पोला मेले का भरपूर आनंद लिया. मेले में आकर अपने गांव की  याद एकाएक ताज़ा हो गई थी. मेरे गाँव में भी हर गुरुवार को एक पशु मेला लगता है. लेकिन इस मेले में बैलों की सजावट हर किसी को भी आकर्षित कर रही  थी . चलिए इसी बहाने कम-से-कम पशुओं के प्रति लोगों का प्रेम देखने को मिल जाता है.
       पोला के नाम पर ही सही, एक दिन तो पशु प्रेम दिख जाता है। आज जिस तरह से अपने देश में जानवरों को काटने के लिए स्लॉटर   हाउस खुल रहे हैं। लोकसभा में आज ही बयान दिया गया कि अपने यहाँ एक भी स्लौटर के लाइसेंस नहीं दिए गए हैं। लेकिन सच  क्या है, यह तो सबों को  पता है।   

Thursday, August 16, 2012

आखिर मैं वर्धा आ ही गया




वर्धा संस्मरण

आख़िरकार मैं वर्धा आ ही गया। एक उहापोह के बीच. 10 अगस्त 2012 को पटना छोड़ा। महात्मा गाँधी हिंदी अंतर्राष्ट्रीय विश्विद्यालय-वर्धा  में आज छः दिन हो गए हैं। कई तरह के अनुभव एक  साथ ले रहा हूँ। कॉलेज की नियमित कक्षाए एक लम्बे अन्तराल के बाद करने  का अवसर मिला। हालांकि पहले दिन गुरु जी की डांट  भी सुनी। देर से कॉलेज आने के लिए यह डांट मिली थी। 15 अगस्त के कार्यक्रम में शामिल होने का मौका यूँ  तो हर साल मिलता  था। लेकिन इस साल एक छात्र के रूप में मैं शरीक हो रहा था। कॉलेज बंद था। इस मौके पैर नाट्य कला विभाग द्वारा फिल्म दिखाने का कार्यक्रम पहले से निर्धारित था। मुझे फिल्म में रूचि नहीं है। लेकिन यदि वह आर्ट  फ़िल्में हो तो देख लेता हूँ। महाश्वेता देवी के उपन्यास पर आधारित 1084वें की माँ। पहले से इसके  बारे में काफी सुन रखा था। इस लिए मैं अपने को देखने से रोक नहीं पाया।
अब थोड़ी चर्चा फिल्मे की। नक्सलवादी आन्दोलन पर आधारित इस फिल्म में शुरू से लेकर अंत तक यह दिखाने की कोशिश की गई है की  आजाद हिंदुस्तान में भी अभी हिंसा के जरिये एक बदलाव की जरूरत है। लेनिन और माओ के सिद्यांत को अपनाने की जरूरत है। वर्ग संघर्ष की कहानी है। हालाँकि मैं व्यक्तिगत तौर पर निर्देशक की राय से सहमत नहीं हूँ। करीब दो घंटे की फिल्म मैंने पूरी देखी.
तारीख 16 अगस्त 2012- आज कॉलेज में गेस्ट लेक्चर होना था। पहले तो मुझे पता था कि  मीडिया मैनेजमेंट के एक्सपर्ट आ रहे हैं। एक्सपर्ट तो आये ही। लेकिन एक और आन्दोलनकारी भी आये थे। इसकी जानकारी मुझे नही थी। पता चला किसान आन्दोलन की बड़े नेता हैं। नाम था- विजय जवांदिया। परिचय करवाया गया- महाराष्ट्र में किसानो को संघटित कर कई मांगें पूरी करवाई हैं। करीब घंटे भर के संबोधन के बाद मुझे भी कुछ पूछने का मौका मिला। मैंने जब से पत्रकारिता में कदम रखा है- विदर्भ के बारे में एक ही बातें सुनी हैं. यहाँ के किसान कर्जों के बोझ टेल ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। सुन कर थोडा अजीब भी लगता. लेकिन मैं इसका सत्यापन तो कर नहीं सकता था। मीडिया में जो रिपोर्ट आती थी उस पर विश्वास करना मेरी विवशता थी। अब मैं विदर्भ में आ चूका हूँ। मेरी इस बात को लेकर शुरू से ही जिज्ञासा रही  है की  क्या सच में यहाँ के किसान अपना ऋण न चूका पाने के कारन आत्महत्या करते हैं या कोई और वजह है। अपने एक साथी आमोल से मैंने पहले भी इसके बारे में जान्ने की क कोशिश की  थी। लेकिन पूरी जानकारी नही जुटा सका था। हालांकि आमोल ने भी कहा  था कि ऐसी कोई बात  नहीं है। आज एक बार फिर मुझे मौका मिला  था कि अपनी जिज्ञासा शांत करूं। मैंने बड़ी सहजता के साथ जावन्दिया जी से पूछा- आप यह बताएं कि यहाँ के किसान सच में बैंक लोन  न चूका  पाने के कारण आत्महत्या करते हैं? उनका जवाब था- ऐसा नहीं है। अपने निम्न जीवन स्टार को लेकर वे ऐसा करते हैं। मैंने कहा- ऐसा तो पूरे भारत में होता है- लेकिन बात केवल विदर्भ की ही क्यों होती है? इसपर कोई माकूल जवाब नहीं मिला। खैर मेरे दिल को तसल्ली मिली। पहले मुझे लग रहा थाई कि इनके यहाँ बैंक वालों का इतना ज्यादा खौफ है कि लोन चुकाने के दबाव में आत्महत्या को मजबूर हो जाते हैं। हालाँकि किसानो की दुर्दशा पूरे देश में कमोबेस एक जैसी है। मैं इससे इनकार नहीं कर रहा.
जावन्दिया जी के बिनोवा जी के लैंड सीलिंग पोलिसी से भी दुखी थे। हालाँकि बाद में जब उन्हें यह एहसास हुआ कि गलत जगह  पर वे अपनी राय जाहिर कर रहे हैं- तब उन्होंने बिनोवा जी के बिहार में दिए गए एक भाषण को उधृत करते हुए उन्होंने अपनी भूल सुधारने की कोशिश की। जावन्दिया जी को अपने पिता जी से 50 एकड़ की सम्पति मिली थी। आज इनके पास 13 एकड़ जमीं बची है। आज जाव्न्दिया जी केवल और केवल किसानो के लिए आन्दोलन करते हैं। कॉलेज और विश्विद्यालयों में व्याख्यान देते हैं। मुझे नहीं जानकारी कि वे इसके एवज में पैसे भी लेते हैं या नहीं। जब मैंने पूछा कि आप तो एक जागरूक किसान रहे हैं। आपकी जमीं की स्थिति क्या है? जवाब मिला- मैंने 17 एकड़ जमीन बेच दी है। इस पैसे से मैंने कार खरीदी है। एक किसान को कार की क्या जरूरत हो सकती है- यह आप भी बखूबी समझ सकते हैं। तो एक नमूना दिखा- किसान आन्दोलन के नेता की। हालाँकि किसानो के नेता की राजनीति का नमूना मैंने बिहार में भी देखा है। आज बिहार में सत्ता पक्ष हो या विपक्ष- सबों ने  किसानो की राजनीति से ही शुरुआत की थी। आज सत्ता की रोटियाँ सेंक रहे हैं।