Tuesday, October 2, 2012

.....और राष्ट्रकवि ने तोड़ दिया भरोसा

 मैं पिछले दो दिनों से एक "महाकवि" द्वारा पंडित नेहरु के उपर लिखी रचना पढ़ रहा हूँ. पढकर मन दुखी हो गया. क्योंकि उनकी इस रचना को पढने के पहले उस महाकवि के लिए मेरे मन में अपार श्रद्धा थी. मैं उन्हें राष्ट्रवादी कवि समझता था. मुझे लगता था कि युवाओं को ललकारने में इनकी कवितायें यदि सहायक हैं तो उनका व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा होगा. यह मेरी गलती थी कि मैंने ऐसी अपेक्षा कर ली. जब आप भी उनकी रचना पढेंगे तब आपको भी ऐसा ही लगेगा. कई जगह तो उन्होंने लिखा है कि यदि नेहरु के किसी आचरण के कारण देश को नुकसान उठाना पड़ा तो मैं उनके उस आचरण के साथ हूँ. पूरी रचना में उन्होंने चाटुकारिता से अधिक कुछ नहीं की है. मुझे नाम लेने में संकोच हो रहा है. क्योंकि मेरी तरह कई युवा साथियों की भावनाओं को ठेस लग सकता है. लेकिन नाम तो उनका सार्वजानिक करूंगा ही. इसके  पहले उनकी कुछ पंक्तियाँ आप लोगों के सामने रख कर. 

ये महाकवि हैं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर. मुझे अब तो लग रहा है कि नेहरु जी की चरण वंदना करके ही इन्होने राष्ट्रकवि का तमगा हासिल किया होगा. मुझे तो इसको लेकर कोई शक सूबा नहीं है. आखिर ऐसे लोगों को चरण चाटुकारिता की क्या मजबूरी होती है ? जिनकी लेखनी में इतना दम हो उसे इस तरह की क्या मजबूरी हो सकती है. अब समझ में आता है  कि बाबा नागार्जुन और गोपाल सिंह नेपाली को कोई पदवी क्यों नहीं मिली? मैं तो कहूँगा कि इसके लिए राष्ट्रकवि दिनकर को आनेवाली पीढ़ी कभी माफ़ नहीं करेगी. जिस रश्मिरथी को पढकर युवक अपने को संघर्ष करने को तैयार करता है, अपने मानसिक और सामजिक दबाव से निजात पाने की कोशिश करता है, वो जब जानेगा कि इसके रचियता सब दिन चरण चाटुकारिता करते रहे, तब उसे उनकी रचना में भी संदेह होने लगेगा.  

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